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कविता

नजीर अकबराबादी के लिए

राकेशरेणु


वह आया
और इससे पहले
कि हालचाल पूछूँ उसका बैठने के लिए कहूँ
वापस चला गया वह
मैं आँखें फाड़े ताकता रहा
और डरता रहा
पूरे शहर और देश के साथ-साथ।
अगली रात फिर आया वह
बेहद परेशान और बेहाल दिखता था
मैंने पूछा -
कैसे हैं आप कवि नजीर
आप जहाँ हैं, पृथ्वी कैसी दिखती है वहाँ से
क्या वैसी ही - चपटी और गोल नारंगी जैसी
कैसे हैं वहाँ के बाकी लोग
बैठिये न आप,
क्या लेंगे चाय
वह चुप रहा और देखता रहा मुझे
न कोई हालचाल, न बातचीत, न बैठना ही
मैं सहमा
कहीं किसी बात का बुरा न मान गए हों।
अचानक पूछा उसने -
कवि क्या कर रहे हो तुम लोग
मेरे शहर में दंगा हुआ पहली बार
पहली बार बेकसूर मारे गए वहाँ
पहली बार रिश्ता टूटा यकीन का
शहर के धमाके मेरी नींद उड़ा ले गए हैं
तुम सो कैसे पाते हो कवि
इस बार मैं चुप था
कोई जवाब नहीं सूझ रहा था
गला खुश्क
क्या उत्तर दूँ उनको
कवि, जब घर जल रहा हो तुम्हारा
क्या आग बुझाने नहीं बढ़ोगे तुम
जब आदमी देखता हो आदमी को शक की निगाह से
और फट गई यकीन की चादर
क्या कविता तुम्हारी नहीं आएगी आगे
रफूगर का सूई धागा बनकर
तुमसे बहुत उम्मीदें हैं तुम्हारे समय और समाज को
तुम कब तक वसंत गीत गाओगे
कब तक खुद को झुठलाओगे
कब तक सोओगे कवि
मैं भक्क हूँ और तलाश रहा हूँ उसे
लेकिन वह कहीं नहीं है मेरी नींद की तरह
सिर्फ अँधेरा है और अकुलाहट
मानो बारुदी धुआँ और गंध जले हुए आदमी की
घूर रही हो मेरे नथुनों में। 


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